"अंग प्रदर्शन: आंतरिक रिक्तता का बाहरी उत्सव"

जब मैं कॉलेज में थी, एक बार जर्मनी से एक प्रख्यात मनोवैज्ञानिक आए थे। उनके लेक्चर का विषय था – “आधुनिक समाज में मानसिक विकृतियाँ और उनका सामाजिक प्रभाव।” उनका वक्तव्य आज भी स्मृति में ज्यों का त्यों अंकित है। उन्होंने कहा था कि कुछ सामाजिक प्रवृत्तियाँ जो आज 'प्रगतिवाद' या 'मुक्तता' के नाम पर स्वीकार की जा रही हैं, वास्तव में गहरी मानसिक विकृतियों का परिणाम हैं। उनके शब्द थे, "Not every rebellion against tradition is progress; sometimes, it is a symptom of an inner collapse." (हर परंपरा के विरुद्ध विद्रोह प्रगति नहीं होता; कभी-कभी यह आंतरिक पतन का लक्षण भी होता है।)

अंग प्रदर्शन को लेकर समाज में जो धारणा गढ़ी गई है कि यह आधुनिकता और स्वतंत्रता का प्रतीक है, वह विशुद्ध भ्रांति है। मैंने तब अपने मनोविज्ञान के पाठ्यक्रम की एक पुस्तक में भी पढ़ा था कि 'अनुचित अंग प्रदर्शन' (Inappropriate Exposure) को मानसिक स्वास्थ्य विकारों की एक श्रेणी में रखा जाता है, जिसे Exhibitionism कहा जाता है। यह महज एक फैशन या सांस्कृतिक आंदोलन नहीं है; यह गहरी असुरक्षा, आत्महीनता और ध्यानाकर्षण की विकृत आवश्यकता का परिणाम है।

डॉ. कार्ल युंग, प्रसिद्ध मनोविश्लेषक, ने कहा था, "The brighter the facade, the darker the core." (मुखौटा जितना उज्जवल होता है, भीतरी कोर उतना ही अंधकारमय होता है)। आज जब हम आधुनिक फैशन या तथाकथित 'बॉडी पॉजिटिविटी' आंदोलनों की ओर देखते हैं, तो सतह पर यह सब स्वतंत्रता, स्वीकृति और आत्म-सम्मान का जश्न लगता है, लेकिन भीतर, बहुत बार, यह स्वयं से असंतोष, आंतरिक खालीपन और समाज में ध्यान आकर्षित करने की एक अस्वस्थ लालसा को दर्शाता है।

मनोविज्ञान में यह स्थापित तथ्य है कि जब कोई व्यक्ति स्वयं के अस्तित्व को लेकर असुरक्षित महसूस करता है, तो वह या तो अपने बौद्धिक गुणों, या फिर अपने शारीरिक अस्तित्व को अत्यधिक उभारने का प्रयास करता है। यदि बौद्धिक या भावनात्मक परिपक्वता का विकास नहीं हो पाया है, तो शारीरिक प्रदर्शन ही एकमात्र साधन रह जाता है जिससे वह 'देखा जाना' चाहता है।

डॉ. एरिच फ्रॉम ने अपनी पुस्तक 'The Sane Society' में लिखा है, "In a sick society, being well adjusted to it is no measure of health." (एक बीमार समाज में, उसके अनुकूल होना स्वास्थ्य का प्रमाण नहीं है।) आज का समाज अंग प्रदर्शन को सामान्य मानने लगा है; इसलिए इसे सामान्य मान लेना स्वयं एक सामाजिक बीमारी का हिस्सा बन जाना है। स्वस्थ समाज वह है जहाँ आंतरिक गरिमा और आत्मसम्मान को बाहरी दिखावे से ऊपर रखा जाता है, न कि जहाँ शरीर को प्रदर्शन की वस्तु बना दिया जाए।

जब जर्मन मनोवैज्ञानिक ने अपने व्याख्यान में इस विषय को छुआ था, तो उन्होंने यह भी बताया था कि ऐतिहासिक रूप से, नग्नता तब आदर्श मानी गई थी जब मनुष्य सभ्यता के आदिम चरणों में था। जैसे-जैसे बौद्धिक विकास हुआ, वैसे-वैसे शरीर को आवरण देना, आत्मगौरव और सामाजिक शालीनता का प्रतीक बनता गया। आज जब तथाकथित आधुनिकता के नाम पर पुनः उसी आदिम अवस्था की ओर लौटने की चेष्टा की जा रही है, तो इसे प्रगति कहना न केवल विडंबना है, बल्कि एक खतरनाक भ्रांति भी है।

मनोवैज्ञानिक थॉमस स्ज़ाज़ ने एक स्थान पर लिखा है, "Every act of self-degradation is an unconscious appeal for love and attention." (स्वयं को गिराने का हर कृत्य प्रेम और ध्यान की अचेतन याचना है)। इस दृष्टि से देखें तो अंग प्रदर्शन कोई 'स्वतंत्रता' नहीं, बल्कि भीतर की उपेक्षा और स्वीकृति की भूख का परिणाम है। समाज का एक बड़ा हिस्सा आज इस भूख को अनदेखा कर रहा है और उसकी बाह्य अभिव्यक्तियों को आधुनिकता की विजयगाथा मानने का छल कर रहा है।

एक और महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक सिद्धांत जिसे मैंने अपनी पढ़ाई के दौरान समझा, वह था 'Body Objectification' – जब व्यक्ति अपने शरीर को स्वयं ही एक वस्तु के रूप में देखने लगता है। यह मानसिक विकृति तब और बढ़ जाती है जब समाज भी उस दृष्टि को मान्यता देना शुरू कर देता है। धीरे-धीरे, व्यक्ति अपनी असली पहचान को खो बैठता है और स्वयं को केवल एक आकर्षक 'वस्तु' के रूप में देखने लगता है। यह मानसिक विनाश का आरंभ है।

स्वयं सिगमंड फ्रायड ने चेताया था कि “Civilization begins the moment we renounce nakedness.” (सभ्यता वहीं से प्रारंभ होती है जब हम नग्नता का त्याग करते हैं)। यदि हम आज इस मूलभूत बात को भूलते हैं और सोचते हैं कि खुला अंग प्रदर्शन उन्नति का प्रतीक है, तो हम स्वयं को सभ्यता के विपरीत दिशा में धकेल रहे हैं।

यह भी देखने योग्य है कि जो समाज अंग प्रदर्शन को सामान्य मानते हैं, वहाँ मानसिक अवसाद, आत्महत्या की दर, वैवाहिक विफलताएँ और जीवन में असंतोष की मात्रा अधिक पाई जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि जब शरीर को ही ध्यानाकर्षण का साधन बना दिया जाता है, तब व्यक्ति का संपूर्ण अस्तित्व केवल बाहरी स्वीकृति पर निर्भर हो जाता है। और बाहरी स्वीकृति अस्थायी होती है; वह समय के साथ फीकी पड़ जाती है, जिससे भीतर एक शून्यता उत्पन्न होती है जो धीरे-धीरे मानसिक विकृतियों का रूप ले लेती है।

कुछ मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि नियमित रूप से अंग प्रदर्शन करने वाले व्यक्तियों में आत्मसम्मान की कमी पाई जाती है। वे समाज से जो पहचान चाहते हैं, वह स्वयं से नहीं आती, बल्कि दूसरे के नेत्रों से आती है। जैसे ही दूसरे की दृष्टि बदलती है, उनकी स्वयं की पहचान भी संकट में पड़ जाती है।

डॉ. विक्टर फ्रैंकल ने लिखा था, "When a person can't find a deep sense of meaning, they distract themselves with pleasure." (जब व्यक्ति जीवन में गहरे अर्थ नहीं खोज पाता, तो वह स्वयं को सुख-साधनों से विचलित कर लेता है)। अंग प्रदर्शन भी इसी विचलन का परिणाम है। यह आत्मा की उस चुप पुकार का दमन है, जो अर्थहीनता के विरुद्ध विद्रोह करना चाहती है।

यह कहना भी आवश्यक है कि सभी अंग प्रदर्शन करने वाले मानसिक रोगी नहीं होते, लेकिन यदि इस प्रवृत्ति को महिमामंडित किया जाए, तो धीरे-धीरे एक सामूहिक मानसिक रोग का रूप ले लेती है। यही कारण है कि सभ्यताएँ अपने आदर्शों की रक्षा के लिए सामाजिक आचार-संहिताओं का निर्माण करती हैं। ये आचार-संहिताएँ व्यक्ति को उसकी गरिमा के प्रति जागरूक रखती हैं और मानसिक स्वास्थ्य को संतुलित बनाए रखने में सहायता करती हैं।

कई बार यह भी देखा गया है कि अंग प्रदर्शन की प्रवृत्ति केवल व्यक्तिगत असंतोष का परिणाम नहीं होती, बल्कि बाज़ार द्वारा सुनियोजित रूप से पोषित भी होती है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने सुंदरता के आदर्शों को इस तरह गढ़ा है कि व्यक्ति अपने शरीर को ही उत्पाद बनाकर प्रस्तुत करने लगे। विज्ञापन, फिल्में, सोशल मीडिया — ये सब ऐसे चित्र गढ़ते हैं जहाँ शरीर को सजाकर प्रस्तुत करना सफलता का पर्याय बन गया है। परिणामस्वरूप, समाज धीरे-धीरे एक सामूहिक भ्रम में जीने लगता है जहाँ भीतर की योग्यता और गरिमा गौण हो जाती है, और बाहरी प्रदर्शन ही सर्वोपरि बन जाता है।

फ्रांसीसी दार्शनिक जीन बौद्रियार ने कहा था, "In a society that thinks images are everything, the soul quietly dies." (एक ऐसा समाज जो छवियों को सबकुछ मानता है, वहाँ आत्मा चुपचाप मर जाती है)। यह वाक्य आज के संदर्भ में भयावह रूप से सत्य प्रतीत होता है।

हम जब अंग प्रदर्शन को 'आत्म-अभिव्यक्ति' या 'स्वतंत्रता' का नाम देकर स्वीकृति देते हैं, तो हम उस गहरे रोग को अनदेखा कर रहे होते हैं जो आहिस्ता-आहिस्ता समाज की जड़ों को खा रहा है। व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं के आत्म-सम्मान को नष्ट कर दे। सच्ची स्वतंत्रता वह है जो भीतर से आती है — जहाँ व्यक्ति अपने शरीर को साधन नहीं, साधना मानता है; जहाँ आत्म-अभिव्यक्ति का अर्थ आत्मा की गरिमा को प्रकट करना होता है, न कि उसे बाज़ारू आकर्षण में तब्दील करना।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम आधुनिकता और उच्छृंखलता के बीच का भेद स्पष्ट रूप से समझें। प्रगतिशीलता वह नहीं है जो शरीर को खुलेआम प्रस्तुत करने में है, बल्कि वह है जो विचारों, चरित्र और संवेदनाओं के स्तर पर स्वतंत्रता और गरिमा की स्थापना करता है।
अंग प्रदर्शन कोई स्वस्थ मानसिक प्रवृत्ति नहीं है। यह एक चुप्पी साधे हुए मानसिक संकट का शोर है। यह आत्मा के भूखेपन की खामोश चीख है जिसे चमकती रोशनी में छुपा दिया गया है। हमें इस चीख को सुनना होगा। हमें यह पहचानना होगा कि सच्ची सुंदरता शालीनता में है, आत्म-गौरव में है, और सबसे बढ़कर आत्म-सम्मान में है।
जिस दिन समाज यह समझेगा, उसी दिन सच्चे प्रगतिवाद का उदय होगा — वह प्रगतिवाद जो मनुष्य को शरीर से ऊपर उठकर आत्मा के स्तर तक ले जाएगा।

©® पायल लक्ष्मी सोनी 

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