युवा और सिनेमा: दिशा या विध्वंस..?

आज का सिनेमा सिर्फ परदे पर दिखने वाला मनोरंजन भर नहीं है, बल्कि एक ऐसा माध्यम बन चुका है जो सीधे समाज के मानस पर प्रभाव डालता है। खासकर युवाओं पर इसका असर अत्यधिक गहरा होता है, क्योंकि यही वह वर्ग है जो सबसे अधिक भावुक होता है, सबसे अधिक सीखने को तैयार रहता है, और सबसे अधिक कल्पनाशील होता है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज का सिनेमा उनकी भावनाओं का पोषण करने के बजाय, उनका व्यापार करने में लगा है। वह उन्हें सस्ती भावनाओं, असली प्रेम के नाम पर फेक रिलेशनशिप, आत्मसम्मान के स्थान पर आकर्षण, और जीवन के संघर्ष की जगह शॉर्टकट्स की झूठी दुनिया दिखाकर भ्रमित कर रहा है।
युवाओं की दुनिया में अब सिनेमा एक रोल मॉडल बन गया है, पर प्रश्न यह है कि क्या यह रोल मॉडल सही दिशा दिखा रहा है? क्या ये फिल्में उन्हें सशक्त, संवेदनशील और विवेकशील बना रही हैं या उन्हें भ्रम, भटकाव और भावनात्मक शोषण के रास्ते पर ले जा रही हैं? जब किसी फिल्म में ‘हीरो’ को बिना मेहनत के सबकुछ मिल जाता है, वह कई संबंधों में होता है, ड्रग्स लेता है, झूठ बोलता है और फिर भी वह सफल और "स्टाइलिश" दिखाया जाता है - तो यह केवल कल्पना नहीं रह जाती, वह एक विचार बन जाती है, जो धीरे-धीरे युवा दिमागों में घर कर जाती है।

विदेशों में जब हम फिल्मों को देखते हैं, तो वे विज्ञान, खोज, भविष्य, तकनीक, अंतरिक्ष, एलियंस, और सामाजिक चेतना जैसे विषयों पर आधारित होती हैं। वहां के फिल्मकार दर्शकों को सिर्फ मनोरंजन नहीं देना चाहते, बल्कि उन्हें सोचने और जानने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। उनकी फिल्में जीवन की जटिलताओं को समझने में सहायक बनती हैं, जबकि हमारे यहाँ अधिकांश फिल्में आज भी "लड़का लड़की से मिला, अफेयर हुआ, धोखा मिला, बदला लिया" जैसे विषयों में उलझी हैं। न केवल विषय सीमित हैं, बल्कि उनमें दिखाए जाने वाले भावनात्मक दृश्य भी सतही हैं।

भारतीय सिनेमा का बड़ा हिस्सा आज अश्लीलता, अपराध, नशे, स्मगलिंग, फेक लव स्टोरीज़ और रिश्तों की विकृति को ग्लैमराइज कर रहा है। उसे परवाह नहीं कि इससे युवा मनों पर क्या असर पड़ रहा है। निर्माता-निर्देशक जानते हैं कि सेक्स, स्कैंडल और सनसनी बिकती है, तो वे बार-बार उन्हीं फार्मूलों को परोसते रहते हैं। क्या उन्हें इस बात की चिंता है कि इन फिल्मों को देखकर एक 16-17 साल का लड़का या लड़की क्या सोच रहा होगा? क्या उसे यह संदेश मिल रहा है कि सच्चा प्रेम विश्वास और समर्पण से बनता है, या कि ‘प्यार एक गेम है जिसमें जितना ज्यादा पार्टनर, उतनी ज्यादा मस्ती’?

अब समय आ गया है जब हमें यह प्रश्न पूछना चाहिए कि फिल्म से फायदा किसे हो रहा है? फिल्म बनाने वालों को? ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को? थिएटर मालिकों को? शायद हाँ। लेकिन क्या समाज को फायदा हो रहा है? क्या माता-पिता को यह लग रहा है कि उनका बच्चा इन फिल्मों से कुछ सकारात्मक सीख रहा है? क्या एक शिक्षक यह कह सकता है कि वह छात्र फिल्मों से प्रेरणा लेकर और मेहनती बन गया है?
दूसरी तरफ, जब कोई युवा फिल्मों से प्रभावित होकर अव्यावहारिक अपेक्षाएं पालता है, रिश्तों में असफल होता है, या नशे और अपराध की ओर आकर्षित होता है, तब कोई फिल्म निर्माता उसका ज़िम्मेदार नहीं बनता। वह केवल कहता है कि “हम तो सिर्फ मनोरंजन कर रहे हैं”। लेकिन यह मनोरंजन अब केवल मनोरंजन नहीं रहा, यह सामाजिक संस्कारों को तोड़ने वाला और मनोवैज्ञानिक रूप से हानिकारक बनता जा रहा है।
हमारा युवा वर्ग दिशाहीन नहीं है, लेकिन उसके पास सही दिशा दिखाने वाले संसाधनों की कमी होती जा रही है। पहले साहित्य, नाटक और सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्में समाज को गढ़ती थीं। अब फिल्मों का उद्देश्य समाज को निखारना नहीं, बल्कि भ्रमित करके पैसा कमाना हो गया है। यही कारण है कि युवाओं की भावनाएँ अब कला का विषय नहीं, बाज़ार का उत्पाद बन गई हैं।
अब ज़रूरत इस बात की है कि हम सिर्फ फिल्म को एक ग्लैमर की दुनिया समझकर न देखें, बल्कि उसमें छिपे विचार और प्रभाव की गहराई को भी समझें। ज़रूरत है वैकल्पिक सिनेमा को बढ़ावा देने की जो समाज की जड़ों से जुड़ा हो, जो रिश्तों की गहराई को समझाए, जो संघर्ष को गौरव और आत्मनिर्भरता की कहानी में बदले। युवा वर्ग को भी सजग होना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि हर चीज जो दिख रही है, वह जरूरी नहीं कि सच भी हो। उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेने होंगे, सोच-समझकर फिल्में देखनी होंगी, और यह सवाल खुद से पूछना होगा - "क्या यह फिल्म मेरे सोचने के तरीके को बेहतर बना रही है या केवल मुझे भ्रमित कर रही है?"
यदि हम ऐसा कर पाए, तो संभव है कि आने वाली पीढ़ियाँ फिल्मों से केवल मनोरंजन ही नहीं, जीवन के मूल्यों की भी शिक्षा लेंगी। लेकिन यदि हम चुप रहे, और इस भावनात्मक बाज़ार को यूँ ही फलता-फूलता देखते रहे, तो एक दिन यही फिल्में हमारे युवाओं को खोखला कर देंगी - बाहर से चमकदार और भीतर से खाली।
©®पायल लक्ष्मी सोनी 

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