गर्भावस्था: एक पवित्र संस्कार और आधुनिक समाज की विघटनशील प्रवृत्ति
गर्भावस्था केवल एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक दिव्य अनुभूति और सांस्कृतिक संस्कार है, जिसमें एक स्त्री सृजन का वरदान प्राप्त करती है। यह वह अवस्था है जब एक नारी न केवल एक नए जीवन को जन्म देने की क्षमता रखती है, बल्कि अपने भीतर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक परिवर्तन भी अनुभव करती है। भारतीय संस्कृति में गर्भावस्था को अत्यंत पवित्र और संवेदनशील माना गया है। इस दौरान स्त्री की भावनाओं, विचारों और उसके आसपास के वातावरण का विशेष ध्यान रखा जाता है, ताकि अजन्मे शिशु पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
भारत में ‘गर्भ संस्कार’ की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण माना गया है। आयुर्वेद में यह माना गया है कि गर्भावस्था के दौरान मां के आहार, विचार, और आचरण का प्रभाव शिशु के मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक विकास पर पड़ता है। इसलिए, गर्भिणी स्त्री को उत्तम संगीत सुनने, धार्मिक ग्रंथ पढ़ने, सकारात्मक विचार रखने और अच्छे कार्यों में संलग्न रहने की सलाह दी जाती है।
महाभारत में अभिमन्यु की कथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ उसने अपनी माता सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह तोड़ने की कला सीख ली थी। इसी तरह, अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी गर्भ संस्कार का उल्लेख किया गया है, जो इस बात को प्रमाणित करता है कि यह केवल एक पारंपरिक मान्यता नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक प्रक्रिया भी है।
लेकिन आज के दौर में जब आधुनिकता और सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, तब हमारी यही पवित्र परंपराएँ एक मजाक बनती जा रही हैं। गर्भावस्था को सम्मान और गोपनीयता के साथ जीने की बजाय, कुछ महिलाएँ इसे दिखावे का विषय बना रही हैं। सोशल मीडिया पर आए दिन ऐसी महिलाएँ दिखाई देती हैं जो अपनी पूरी गर्भावस्था की यात्रा को व्लॉग (Vlog) के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं, यहाँ तक कि डिलीवरी रूम से भी वीडियो साझा किए जाते हैं। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो न केवल भारतीय संस्कारों का ह्रास दर्शाती है, बल्कि मातृत्व जैसी दिव्य अनुभूति को बाजारीकरण और कंटेंट क्रिएशन का माध्यम बना देती है।
आज के समय में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रेग्नेंसी एनाउंसमेंट, जेंडर रिवील पार्टी, बेबी शॉवर, और डिलीवरी व्लॉग्स की बाढ़ सी आ गई है। कुछ लोग इसे सकारात्मक मान सकते हैं, क्योंकि यह दूसरों को जागरूक करने और उनके अनुभव साझा करने का माध्यम बनता है, लेकिन वास्तव में यह एक गंभीर सांस्कृतिक विघटन की ओर इशारा करता है। गर्भावस्था, जो कि एक स्त्री के लिए अत्यंत निजी और संवेदनशील अनुभव होता है, उसे कैमरों के सामने बार-बार प्रस्तुत करना क्या उचित है? क्या यह हमारे संस्कारों और पारिवारिक मूल्यों के विरुद्ध नहीं जाता?
गर्भावस्था के समय स्त्री केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक और भावनात्मक रूप से भी अत्यंत संवेदनशील होती है। ऐसे में उसके आसपास सकारात्मक वातावरण बनाना आवश्यक होता है। लेकिन जब कोई गर्भवती महिला सोशल मीडिया पर अपनी हर गतिविधि को साझा करने में व्यस्त रहती है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या वह वास्तव में अपनी इस अवस्था का आनंद ले पा रही है या फिर यह सब केवल 'लाइक' और 'फॉलोअर्स' बढ़ाने के लिए किया जा रहा है?
एक समय था जब गर्भवती महिला को विशेष आहार, सकारात्मक वातावरण और मानसिक शांति प्रदान करने पर जोर दिया जाता था। लेकिन अब सोशल मीडिया की इस नई संस्कृति में, यह सब एक 'कंटेंट स्ट्रेटेजी' बनकर रह गया है। बेबी बंप फ्लॉन्ट करने से लेकर, अस्पताल के बेड से लाइव अपडेट देने तक, मातृत्व को एक ‘स्पेक्टेकल’ बना दिया गया है। यह प्रवृत्ति न केवल गर्भ संस्कार की भावना के विरुद्ध है, बल्कि यह समाज में दिखावे की मानसिकता को भी जन्म देती है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि बदलते समय के साथ समाज में कई सकारात्मक परिवर्तन भी हुए हैं। पहले की तुलना में अब महिलाएँ अधिक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर हो रही हैं। वे अपने विचारों को खुलकर व्यक्त कर सकती हैं, जो कि प्रगति का संकेत है। लेकिन हर स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी भी आती है। आधुनिकता को अपनाना आवश्यक है, लेकिन उसके नाम पर हमारी संस्कृति और संस्कारों का ह्रास नहीं होना चाहिए।
गर्भावस्था एक व्यक्तिगत अनुभव है, जिसे परिवार और प्रियजनों के साथ संजोया जाना चाहिए, न कि सोशल मीडिया के मंच पर दिखावे के लिए प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यह आवश्यक है कि मातृत्व और गर्भावस्था की गरिमा को बनाए रखा जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसे एक पवित्र संस्कार के रूप में समझें, न कि एक सोशल मीडिया ट्रेंड के रूप में।
गर्भावस्था केवल एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक स्त्री के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र चरण होता है। यह एक ऐसा समय होता है जब स्त्री को आत्मिक, मानसिक और शारीरिक शांति की आवश्यकता होती है, न कि दिखावे और बाहरी दुनिया की मान्यता की। सोशल मीडिया पर अपने निजी अनुभवों को साझा करने की स्वतंत्रता सभी को है, लेकिन यह आवश्यक है कि हम अपनी संस्कृति, पारिवारिक मूल्यों और निजी जीवन की गोपनीयता को बनाए रखें।
भारतीय संस्कृति ने हमेशा से गर्भवती महिलाओं के सम्मान और उनके विशेष ध्यान की बात की है। ऐसे में आधुनिकता के नाम पर इसे बाजारीकरण का साधन बनाना, हमारे सांस्कृतिक पतन को दर्शाता है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हर चीज दिखाने योग्य नहीं होती, कुछ अनुभव आत्मा से जुड़े होते हैं, जिन्हें कैमरे में नहीं बल्कि दिल में संजोकर रखा जाता है। गर्भावस्था एक पवित्र संस्कार है और इसे उसी आदर और सम्मान के साथ जीना चाहिए, जैसा हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया है।
©®पायल लक्ष्मी सोनी
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