फिल्म 'Mrs' पर समीक्षा: नरेटिव गढ़ने का प्रयास या वास्तविकता का प्रतिबिंब?

फिल्म 'Mrs' पर समीक्षा: नरेटिव गढ़ने का प्रयास या वास्तविकता का प्रतिबिंब?

फिल्म 'Mrs' को लेकर सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई है कि यह अत्यधिक नारीवादी (Too Much Feminist) दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रही है या फिर एक आवश्यक विमर्श को जन्म दे रही है। कुछ इसे 15-20 साल पीछे की कहानी मान रहे हैं, जबकि कुछ इसे एक नरेटिव गढ़ने की कोशिश कह रहे हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस फिल्म को देखने पर कई परतें खुलती हैं।

भारतीय समाज पारिवारिक संरचना को अत्यधिक महत्त्व देता है। पारंपरिक रूप से स्त्री को गृहिणी की भूमिका में देखा गया है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिभाषा बदली है। मनोवैज्ञानिक रूप से, यदि कोई स्त्री केवल "पत्नी" की भूमिका में ही सीमित रह जाए और उसकी व्यक्तिगत पहचान गौण हो जाए, तो यह मानसिक तनाव और आत्म-सम्मान की समस्या उत्पन्न कर सकता है।

फिल्म में जिस प्रकार महिला किरदार को दिखाया गया है, वह कहीं न कहीं उन महिलाओं की आवाज बनती है, जो घरेलू दायित्वों के बोझ तले अपनी खुद की इच्छाओं और सपनों को पीछे छोड़ देती हैं। हालाँकि, यह भी देखना जरूरी है कि क्या यह चित्रण संतुलित है या फिर जानबूझकर एक नरेटिव गढ़ने का प्रयास किया जा रहा है।

यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। यदि देखा जाए, तो हर समाज और धर्म में महिलाओं की स्थिति समय-समय पर अलग-अलग रही है। लेकिन कई बार फिल्मों में हिंदू समाज की पारिवारिक संरचना को निशाना बनाया जाता है, जबकि अन्य समुदायों की महिलाओं की स्थिति पर खुलकर चर्चा नहीं होती।

यदि फिल्म केवल हिंदू महिलाओं को पीड़ित दिखाती है और अन्य समाजों की महिलाओं के संघर्ष को नजरअंदाज करती है, तो यह एकतरफा नरेटिव गढ़ने जैसा हो सकता है। एक निष्पक्ष फिल्म को समाज के हर तबके की महिलाओं के संघर्ष को समान रूप से दिखाना चाहिए।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परिवार एक व्यक्ति की भावनात्मक स्थिरता के लिए आवश्यक होता है। यदि कोई फिल्म बार-बार विवाह संस्था, पारिवारिक दायित्वों और परंपराओं को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करती है, तो यह समाज में एक असंतुलन पैदा कर सकता है।

हालाँकि, यह भी सच है कि सामाजिक परिवर्तन आवश्यक होता है। यदि कोई महिला अपने सम्मान और आत्मनिर्णय के लिए लड़ती है, तो उसे "परिवार तोड़ने की साजिश" नहीं कहा जा सकता। लेकिन यदि इस लड़ाई को केवल "पुरुष बनाम स्त्री" का रूप दिया जाता है, तो यह वैचारिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकता है।

फिल्म 'Mrs' एक महत्वपूर्ण विषय को उठाती है, लेकिन यह जरूरी है कि इसे संतुलित दृष्टिकोण से देखा जाए। यदि यह केवल एक खास नरेटिव गढ़ने की कोशिश करती है, तो यह समाज में द्वेष और भ्रम पैदा कर सकती है। लेकिन यदि यह वास्तव में उन महिलाओं की सच्ची आवाज उठाती है, जो पहचान खोने की कगार पर हैं, तो यह एक सकारात्मक बदलाव का संकेत हो सकता है।

इसलिए, फिल्म को देखने से पहले यह सोचना जरूरी है कि यह हमें विचार करने पर मजबूर कर रही है या केवल एक एजेंडा सेट करने की कोशिश कर रही है।

©®पायल लक्ष्मी सोनी 

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