समाज, विवाह और उत्तरदायित्व: एक संतुलित दृष्टिकोण
समाज, विवाह और उत्तरदायित्व: एक संतुलित दृष्टिकोण
वर्तमान समय में विवाह और स्त्री की भूमिका को लेकर समाज में कई तरह की भ्रांतियाँ और अपेक्षाएँ देखने को मिलती हैं। एक ओर जहाँ लड़कियाँ शिक्षा, आत्मनिर्भरता और करियर को प्राथमिकता दे रही हैं, वहीं दूसरी ओर विवाह को एक भव्य आयोजन और वैवाहिक जीवन में ऐशो-आराम की चाहत भी बनी हुई है। यह एक गहरे सामाजिक परिवर्तन का संकेत है, लेकिन इसमें कुछ विरोधाभास भी देखने को मिलते हैं।
आज के समय में विवाह को एक महंगा उत्सव बना दिया गया है। विवाह में दहेज का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप अब भी जारी है, भले ही इसे नए नामों के साथ प्रस्तुत किया जाता हो। लड़की और उसके परिवार को बड़े घर, महंगे कपड़े, आलीशान विवाह समारोह की अपेक्षा होती है, लेकिन क्या यह उचित है जब विवाह के बाद उसका जीवन आत्मनिर्भरता पर आधारित हो? यदि किसी लड़की को अपने करियर पर ही ध्यान केंद्रित करना है और वह घर की जिम्मेदारियों में हिस्सेदारी नहीं लेना चाहती, तो फिर विवाह को एक बड़ी आर्थिक सौदेबाजी क्यों बनाया जाता है?
यदि विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध या जीवन साथी चुनने की प्रक्रिया है, तो इसका आडंबर से क्या संबंध? माता-पिता यदि अपनी बेटियों की शिक्षा, संस्कार, आत्मनिर्भरता और कर्तव्यपरायणता पर ध्यान दें तो विवाह को इतना खर्चीला बनाने की आवश्यकता ही न पड़े। विवाह में दिखावे के पीछे की मानसिकता यह सिद्ध करती है कि विवाह को एक प्रतिष्ठा का विषय मान लिया गया है, जबकि यह दो व्यक्तियों का आपसी सहमति से बना संबंध होना चाहिए।
पति-पत्नी का रिश्ता केवल प्यार और सम्मान पर आधारित नहीं होता, बल्कि इसमें त्याग, समर्पण, सहनशीलता और जिम्मेदारी की भी अहम भूमिका होती है। जब कोई स्त्री यह निर्णय लेती है कि वह विवाह के बाद पूर्णतः स्वतंत्र रहना चाहती है और पारिवारिक जिम्मेदारियों में हिस्सेदारी नहीं करेगी, तो यह विवाह संस्था के मूल विचार के विपरीत हो जाता है।
कई बार यह देखने को मिलता है कि कुछ महिलाएँ विवाह के बाद न केवल आर्थिक स्वतंत्रता चाहती हैं, बल्कि घर के किसी भी दायित्व को उठाने से कतराती हैं। बच्चों का पालन-पोषण, परिवार का संचालन, घरेलू जिम्मेदारियों में सहयोग जैसे कार्यों को पूरी तरह से अस्वीकार करना परिवार के लिए समस्या खड़ी करता है। यह सत्य है कि स्त्री को केवल गृहिणी बनकर रहना नहीं चाहिए, लेकिन क्या घर और परिवार की जिम्मेदारी केवल पुरुष की ही है? क्या एक स्त्री अपने पति के अच्छे-बुरे समय में साथ खड़ी नहीं हो सकती।
तलाक एक संवेदनशील विषय है और इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। लेकिन समाज में एक नई प्रवृत्ति उभर रही है जहाँ तलाक को एक आर्थिक लाभ के रूप में देखा जाने लगा है। कई बार तलाक के बाद महिला अपने पति से बड़ी धनराशि की माँग करती है, भले ही विवाह में उसने कोई योगदान न दिया हो।
यह सच है कि कुछ महिलाएँ तलाक के बाद आर्थिक रूप से असहाय हो जाती हैं और उन्हें गुजारा भत्ता मिलना चाहिए, लेकिन यदि कोई महिला आत्मनिर्भर है और नौकरी कर रही है, तो फिर पति से मोटी रकम की माँग करना कितना न्यायसंगत है? तलाक के दौरान पति की पूरी संपत्ति पर अधिकार जताना, जीवनभर के लिए आर्थिक सहायता माँगना क्या नैतिक रूप से उचित है?
समाज में एक सफल विवाह के लिए पति-पत्नी दोनों को योगदान देना होता है। सिर्फ पुरुषों से यह अपेक्षा करना कि वे आर्थिक रूप से परिवार चलाएँ, और महिलाओं से यह अपेक्षा करना कि वे केवल घर की देखभाल करें, दोनों ही दृष्टिकोण आज के समय में अप्रासंगिक हैं। विवाह में दोनों पक्षों को बराबरी से योगदान देना होगा।
माता-पिता को भी चाहिए कि वे अपनी बेटियों को भव्य विवाह समारोह का सपना दिखाने की बजाय उन्हें आत्मनिर्भर, सहनशील और जिम्मेदार बनाना सिखाएँ। यदि बेटियाँ बचपन से ही अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों को भी समझें, तो समाज में विवाह और तलाक से जुड़े कई जटिल मुद्दे स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे।
विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि जीवनभर का एक महत्वपूर्ण रिश्ता होता है, जिसे निभाने के लिए त्याग, समझ और समर्पण आवश्यक है। यदि लड़कियों को केवल करियर पर ध्यान देना है, तो उन्हें विवाह को एक भव्य आयोजन या सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाना चाहिए। विवाह में पारिवारिक दायित्वों को स्वीकार करना, पति-पत्नी दोनों का योगदान देना और एक-दूसरे के साथ हर परिस्थिति में खड़ा रहना ही एक सफल दांपत्य जीवन की नींव रख सकता है।
©®पायल लक्ष्मी सोनी
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