संरक्षण ही शक्ति है


आज वैश्विक पृथ्वी दिवस है – वह दिन जब हम कुछ क्षण रुककर उस धरती मां को नमन करते हैं, जिसने हमें जन्म दिया, पोषित किया और जीवन जीने का अधिकार दिया। "हमारी शक्ति, हमारा ग्रह"—इस वर्ष का यह संदेश जितना सरल है, उतना ही गंभीर भी। प्रश्न उठता है कि क्या सचमुच हम इस धरती को अपनी शक्ति मानते हैं? या हम उसे अपने लाभ की वस्तु समझ बैठे हैं?

हम आधुनिक मनुष्य हैं। हमने चांद पर झंडा गाड़ दिया, मंगल की राह पकड़ ली, अंतरिक्ष में होटल बनाने की योजना बना डाली। पर धरती पर एक बूँद साफ जल, एक सांस स्वच्छ वायु के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। विडंबना देखिए कि जिस पृथ्वी ने हमें जीवन दिया, हम उसी के जीवन को संकट में डाल बैठे। पेड़ों की हत्या कर हमने अपने फेफड़ों को कमजोर किया, नदियों को जहर बनाकर खुद की प्यास बुझाने का विकल्प छीन लिया, और पहाड़ों को चीरकर हमने अपने ही संतुलन को गिरा दिया।

हर भारतवासी के जीवन का उद्देश्य होना चाहिए – प्रकृति का संरक्षण। यह कोई सरकारी नारा नहीं, यह जीवन का मूल सिद्धांत है। हम अक्सर सुनते हैं – “प्रकृति हमारी मां है”। लेकिन क्या किसी मां को हम इस तरह नोचते हैं, काटते हैं, जला देते हैं? एक मां चुपचाप सहती है, लेकिन अंतहीन सहिष्णुता भी एक दिन कराह में बदल जाती है – आज पृथ्वी कराह रही है।

पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि कैसे असमय बाढ़, सूखा, जंगल की आग, चक्रवात और गर्मी की भीषण लहरें हमारी जीवनशैली पर प्रश्नचिह्न लगा रही हैं। क्या यह केवल प्राकृतिक घटनाएं हैं? नहीं, यह प्रकृति की प्रतिरोध की भाषा है। यह धरती की चेतावनी है – “अब बहुत हुआ, अब संभल जाओ”।

प्रकृति हमें चेताती है, लेकिन हम आधुनिकता के अहंकार में आंखें मूंद लेते हैं। 'विकास' के नाम पर हमने विनाश का बीज बो दिया है। हम कंक्रीट के जंगलों में सांस लेने को विवश हैं और फिर भी हम उस हरियाली का उपहास करते हैं जो हमें जीवन दे सकती थी। हमारे शहरों के नाम चमकते हैं, लेकिन अंदर से वे खोखले होते जा रहे हैं – जलवायु संकट से, प्रदूषण से, प्लास्टिक के पहाड़ों से।

यह लेख कोई आँकड़ों की रिपोर्ट नहीं है, न ही किसी NGO का विज्ञापन। यह एक आत्मा की पुकार है – जो पृथ्वी के दर्द को महसूस करती है। और आपको भी वह दर्द महसूस करना चाहिए। आप सुबह जिस ब्रश से दांत साफ करते हैं, वह भी प्लास्टिक का है। आप जिस AC में ठंडी हवा लेते हैं, वह भी पृथ्वी की गरमी बढ़ा रहा है। जिस कार से आप ऑफिस जाते हैं, वह भी किसी पेड़ की सांसें चुरा रही है। क्या हम इतने असहाय हैं कि इन आदतों को नहीं बदल सकते?

लेकिन नहीं – बदलाव संभव है। और यही इस लेख का संदेश है। एक छोटा सा कदम – जैसे अपने घर में पौधे लगाना, प्लास्टिक की जगह कपड़े का थैला इस्तेमाल करना, जल की बचत करना, हर सप्ताह किसी एक दिन बिना वाहन के चलना – ये कदम न केवल पृथ्वी को राहत देंगे, बल्कि आपको भी एक आंतरिक शांति देंगे, क्योंकि आप किसी जीवित इकाई की सेवा कर रहे होंगे।

व्यंग्य यही है कि हम हर रोज़ "धरती माँ" कहते हैं लेकिन उसकी पीठ पर बोझ डालते जाते हैं। हम उसे “वसुंधरा” कहते हैं, लेकिन उसे उपजाऊ रखने के लिए कुछ नहीं करते। हम उसकी गोद में रहते हैं, लेकिन उसके आँचल को फाड़ते जाते हैं। क्या यही श्रद्धा है?

पृथ्वी दिवस महज एक दिन नहीं, एक स्मरण है – कि हम पृथ्वी के हैं, पृथ्वी हमारी नहीं। यह फर्क समझना जरूरी है। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, तब तक कोई पर्यावरण नीति, कोई सम्मेलन, कोई कानून इस विनाश को नहीं रोक पाएगा।

अब समय है आत्मचिंतन का। समय है कि हम अपनी शक्ति को पहचानें – हम वही हैं जो इस पृथ्वी को फिर से हरा-भरा बना सकते हैं। अगर एक बीज पेड़ बन सकता है, तो एक मनुष्य परिवर्तन की लहर भी बन सकता है। हमें दूसरों से उम्मीद करने की जगह खुद से शुरुआत करनी होगी। यही सच्चा राष्ट्रधर्म होगा, यही मानवधर्म।

हमारी शक्ति हमारा ग्रह है – इसका अर्थ यही है कि हमारी शक्ति तभी है जब यह ग्रह जीवित है। आइए, इस पृथ्वी दिवस पर एक संकल्प लें – हम अपनी हर सांस के साथ इस धरती को थोड़ा और जीवंत बनाएंगे। नारे नहीं, कार्य करेंगे। दिखावा नहीं, संवेदना से जुड़ेंगे। तभी यह पृथ्वी केवल बची नहीं रहेगी, बल्कि मुस्कुराएगी भी।

©®पायल लक्ष्मी सोनी 

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