एक मूल, दो धाराएँ: जैन और हिंदू धर्म की सांस्कृतिक समरसता

एक मूल, दो धाराएँ: जैन और हिंदू धर्म की सांस्कृतिक समरसता


भारतीय उपमहाद्वीप की धार्मिक और दार्शनिक परंपराएं सहअस्तित्व, संवाद और आपसी आदान-प्रदान की मिसाल रही हैं। जैन धर्म और हिंदू धर्म को अक्सर एक-दूसरे से भिन्न मानने की प्रवृत्ति रही है, परंतु ऐतिहासिक ग्रंथों, धार्मिक साहित्य, और दार्शनिक आधारों की तुलना से स्पष्ट होता है कि दोनों धर्मों में गहन समानताएं हैं, जो इस विचार को पुष्ट करती हैं कि इनका उद्गम एक ही सांस्कृतिक धरातल से हुआ है और वे परस्पर पूरक रहे हैं।

प्राचीन भारत की धार्मिक संरचना विविध मत-सम्प्रदायों से समृद्ध थी, जिनमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा प्रमुख थीं। लेकिन जैन धर्म और हिंदू धर्म के बीच विशेष प्रकार की निकटता रही है। ऋग्वेद, उपनिषद, महाभारत, पुराणों और अन्य ग्रंथों में जिन प्रतीकों, मूल्यों और सिद्धांतों का उल्लेख है, वे जैन साहित्य में भी समान रूप से मिलते हैं।

ऋग्वेद में जिस ऋषि ऋषभ का उल्लेख आता है, उसे कई विद्वान प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में मानते हैं। ऋग्वेद (10.136) में ‘ऋषभ’ नामक तपस्वी का उल्लेख है, जिसे “मुनि” कहा गया है और जिसका व्यवहार जैन मुनियों जैसा ही बताया गया है। यही ऋषभदेव "भागवत पुराण" (भाग. पु. 5.3.20) में विष्णु के अवतार रूप में वर्णित हैं। यह उल्लेखनीय है कि जैन ग्रंथों में ऋषभदेव को प्रथम तीर्थंकर माना गया है, और उनका चरित्र लगभग वैसा ही है जैसा भागवत में विष्णु के अवतार का।

भागवत पुराण, जो हिंदू धर्म का एक मुख्य पुराण है, उसमें स्पष्ट उल्लेख है—"ऋषभो नाम भगवान आदिनाम्नोऽभवत्सुतः" (भागवत, 5.3.20)। इसका तात्पर्य है कि भगवान का नाम ऋषभ था, और वे आदिनाथ के पुत्र थे। जैन धर्म में भी ऋषभदेव को आदिनाथ कहा गया है। इस प्रकार, दोनों धर्मों में आदिनाथ ऋषभदेव की समानता केवल नाम की ही नहीं, अपितु उनकी जीवनशैली, शिक्षाओं और त्याग के आदर्शों में भी परिलक्षित होती है।

इतिहासकार हर्मन जैकोबी (Hermann Jacobi) जो प्राचीन भारतीय धर्मों के अध्ययन में प्रसिद्ध जर्मन विद्वान थे, उन्होंने अपनी पुस्तक "Jaina Sutras" (Sacred Books of the East, Vol. 22 and 45) में यह प्रतिपादित किया है कि जैन धर्म की उत्पत्ति वैदिक धर्म के समांतर हुई, लेकिन सामाजिक व दार्शनिक स्तर पर इसका गहरा संबंध वैदिक परंपरा से रहा है। जैकोबी के अनुसार, जैन धर्म कोई नवीन आंदोलन नहीं था, बल्कि वह वैदिक संस्कृति के भीतर ही विकसित हुआ।

महाभारत में भी जैन परंपरा की छवि दिखाई देती है। अर्जुन के पौत्र जनमेजय द्वारा आयोजित नाग-यज्ञ को रोकने वाले आस्तिक मुनि की कहानी हो या भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को दिए गए उपदेश—इनमें जैन सिद्धांतों जैसे अहिंसा, अपरिग्रह और संयम का प्रचार-प्रसार परिलक्षित होता है। महाभारत में "अन्याय से प्राप्त राज्य की अपेक्षा एक कुटिया में सत्य से जीवन व्यतीत करना श्रेष्ठ है" जैसी शिक्षा जैन दर्शन की मूल भावना के अत्यंत निकट है।

जैन ग्रंथ "आचारांग सूत्र" में जिस प्रकार से अहिंसा को जीवन का मूल मंत्र माना गया है, वैसा ही भाव गीता (13.7) में मिलता है—"अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।" यही नहीं, योगसूत्र (पंतजलि) में वर्णित यम-नियमों में भी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की चर्चा की गई है, जो जैन धर्म के पाँच महाव्रतों के समकक्ष हैं।

बृहदारण्यक उपनिषद् (4.4.23) में कहा गया है: “न हिंस्यात् सर्वा भूतानि” अर्थात् सभी जीवों की हिंसा न करो—यह स्पष्ट रूप से जैन धर्म के मूल स्तंभ अहिंसा के समानांतर है। उपनिषदों में आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म की धारणा भी पाई जाती है, जिसे जैन धर्म में कर्म सिद्धांत के साथ जोड़कर विस्तृत रूप में स्वीकार किया गया है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि हिंदू धर्म में भगवान शिव को 'योगीश्वर' और 'तपस्वी' के रूप में चित्रित किया गया है, जो नग्न, मस्तिष्क पर जटा, गले में सर्प, और ध्यानमग्न हैं। यही रूप जैन तीर्थंकरों के भी हैं—वे दिगंबर अवस्था में ध्यानस्थ, जटायुक्त और सांसारिक मोह से मुक्त दिखाए जाते हैं। यह रूपात्मक समानता केवल प्रतीकों की नहीं, बल्कि उस आदर्श जीवनशैली की अभिव्यक्ति है, जो आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की ओर उन्मुख होती है।

जैन धर्म और हिंदू धर्म दोनों ही कर्मवाद को स्वीकार करते हैं। यद्यपि व्याख्या में अंतर हो सकता है, लेकिन यह मान्यता कि प्रत्येक जीव अपने कर्मों के आधार पर जीवन के विभिन्न स्तरों को प्राप्त करता है—यह सिद्धांत दोनों में समान रूप से उपस्थित है। गीता (4.17) कहती है—“कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं” यानी कर्म को समझना अत्यंत आवश्यक है। यही बात जैन ग्रंथ "तत्त्वार्थ सूत्र" (उद्भटाचार्य उमास्वाति द्वारा रचित) में पहले सूत्र “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:” के माध्यम से उद्घाटित होती है।

दर्शनों की दृष्टि से भी साम्य दृष्टिगोचर होता है। सांख्य दर्शन, जो हिंदू धर्म के छह प्रमुख दर्शनों में एक है, वह भी आत्मा और प्रकृति को भिन्न मानता है, जैसे कि जैन धर्म जीव और अजिव की भिन्नता को मानता है। दोनों में आत्मा को स्वतंत्र, चेतन और शुद्ध माना गया है। यही नहीं, जैन धर्म में 'anekantavada' की अवधारणा है, जिसमें सत्य को अनेक दृष्टियों से देखा जाता है, जो उपनिषदों के "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" (ऋग्वेद 1.164.46) कथन की पुष्टि करती है—एक ही सत्य को विद्वान भिन्न-भिन्न रूपों में कहते हैं।

पुराणों और उपपुराणों में भी तीर्थंकरों का वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण और पद्म पुराण में ऋषभदेव, नेमिनाथ (जो कि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई माने जाते हैं) तथा अन्य तीर्थंकरों का वर्णन आया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन तीर्थंकर न केवल जैन परंपरा के, बल्कि हिंदू परंपरा के भी पूज्य पुरुष रहे हैं।

भारतीय समाज में जैन और हिंदू परिवारों के बीच सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक रिश्ते इतने निकट रहे हैं कि दोनों के रीतिरिवाज, त्योहार और जीवन शैली में घनिष्ठ साम्यता देखी जाती है। दीपावली, जो सामान्यतः हिंदू पर्व माना जाता है, जैन परंपरा में भी विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इसी दिन महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ था। इसी प्रकार, अष्टाह्निका, अक्षय तृतीया, रक्षाबंधन आदि पर्व भी दोनों धर्मों में एक समान श्रद्धा के साथ मनाए जाते हैं।

विद्वान के.के. दिक्षित अपनी पुस्तक "Origin and Antiquity of Jainism" में लिखते हैं कि जैन धर्म और वैदिक धर्म दोनों की जड़ें सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़ी हैं और दोनों ही धार्मिक परंपराएं एक साझा सांस्कृतिक विरासत का अंग रही हैं।

जैन तीर्थंकरों के जीवन चरित्र और आदर्शों को प्रस्तुत करने वाली 'कल्पसूत्र' (भद्रबाहु द्वारा रचित) और 'तत्त्वार्थसूत्र' जैसे ग्रंथ केवल जैन अनुयायियों के लिए ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय दर्शन के लिए मार्गदर्शक हैं। वहीं वेद, उपनिषद, गीता और पुराण हिंदू धर्म की आध्यात्मिक धरोहर हैं, पर इनकी अंतर्वस्तु में जो मूल्य, संकल्प और आध्यात्मिकता की खोज है, वह जैन परंपरा से एकदम विपरीत नहीं है।

सांस्कृतिक एकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां, हिंदू मंदिरों में और हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं जैन मंदिरों में देखी जा सकती हैं। मध्यकालीन मंदिरों में, जैसे खजुराहो, माउंट आबू, श्रृवणबेलगोला आदि में दोनों धर्मों की कलात्मक अभिव्यक्तियाँ एक साथ देखी जा सकती हैं।

इतिहासकार आर.सी. मजूमदार अपनी पुस्तक "The History and Culture of the Indian People" (Vol. II) में स्पष्ट करते हैं कि “जैन धर्म भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है और वैदिक परंपरा से अलग होने की जगह उसने उसी मूलभूत संस्कृति को अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है।” इसी पुस्तक में यह भी उल्लेख है कि कई जैन आचार्य वैदिक शिक्षालयों से शिक्षित थे और उन्होंने वेदों तथा शास्त्रों का गहन अध्ययन किया।

इस प्रकार, उपरोक्त ऐतिहासिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म और हिंदू धर्म भिन्न नहीं, अपितु एक ही आध्यात्मिक परंपरा की दो धाराएं हैं। इन दोनों की धार्मिक साधना पद्धति, नैतिक मूल्यों, कर्म और मोक्ष के सिद्धांत, और सामाजिक व्यवहार में इतनी गहन समानता है कि वे एक ही सांस्कृतिक चेतना से उत्पन्न प्रतीत होते हैं।

अंततः यह कहना समीचीन होगा कि यदि जैन धर्म को एक पृथक धर्म कहा जाए, तो भी वह हिंदू धर्म की धरती पर उगी एक ऐसी शाखा है, जिसने उसी मूल वृक्ष से अपना पोषण पाया है। इनकी समानता केवल इतिहास की दृष्टि से नहीं, बल्कि वर्तमान में भी भारतीय जीवन दृष्टि और आचरण में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। सत्य, अहिंसा, त्याग, तप, मोक्ष और आत्मबोध जैसे मूल्यों के प्रति समर्पण इन दोनों धर्मों की आत्मा को एक सूत्र में पिरोता है।

©®पायल लक्ष्मी सोनी

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