मौन का मार्क्सवादी महोत्सव
देश का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क अगर किसी ने किया है, तो वो हैं हमारे वामपंथी इतिहासकार और लेखकों की वह जमात, जिन्होंने स्याही से नहीं, छल-कपट से इतिहास लिखा। उन्होंने तथ्यों को मरोड़ा, पीड़ाओं को वर्ग संघर्ष में घोल दिया, और जब भी कोई सभ्यता कराह उठी, तो उसकी आवाज को 'बहुसंख्यक वर्चस्ववाद' कहकर कुचल दिया।
कभी-कभी लगता है इन लेखकों के शब्दकोश में ‘सच’ शब्द नहीं, 'सेलेक्टिव साइलेंस' होता है।
अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध लेखिका ने, जो साहित्य अकादमी से लेकर इंस्टाग्राम की कविताओं तक हर मंच पर प्रगतिशीलता का झंडा उठाए रहती हैं, बड़ी आत्मा-विह्वलता से कहा—"ऐसी हैवानियत देखकर चुप रहना अच्छा है।"
मतलब…?
यानी जब राक्षसी कृत्य हो, तो कलम नीचे रख दो, आँखे मूंद लो, और संवेदना का मुँह स्टोरी मोड में छुपा दो। यह वही जमात है जो किसी एक वर्ग की पीड़ा पर शोर मचाती है, और दूसरे की त्रासदी पर footnote भी नहीं लिखती।
इनका इतिहास का प्रेम भी बड़ा अद्भुत है। इनके अनुसार भारत में बस दो ही ऐतिहासिक घटनाएँ हुई हैं—एक मुग़ल काल का "गंगा-जमुनी तहज़ीब" और दूसरी ब्रिटिश काल का "बौद्धिक पुनर्जागरण"। बाकी जो भी हुआ—जैसे कि कश्मीरी पंडितों का पलायन, गोधरा में जिंदा जलाए गए यात्री, केरला में RSS कार्यकर्ताओं की हत्याएँ, बांग्लादेशी हिंदुओं का नरसंहार—वो सब इनकी किताबों में एक कोष्ठक में "दुर्भाग्यवश" जैसा कोई अस्पष्ट शब्द बनकर रह गया।
"फॉल्स नरेटिव" शब्द इनके लिए किसी कविता की तरह है। ये इतने प्रेम से झूठ गढ़ते हैं, जैसे कोई शायर ग़ज़ल कह रहा हो। 'बाबर सिर्फ एक आक्रांता नहीं, स्थापत्य का पारखी था', 'औरंगज़ेब कठोर था, पर न्यायप्रिय भी था', 'टीपू सुल्तान हिन्दू मंदिरों का संरक्षक था'—ये सब इनकी ऐतिहासिक कल्पनाओं के अनमोल रत्न हैं।
इतिहास इनके लिए न कभी धर्म था, न विज्ञान। वो बस एक टूल था—अपने विचारों की मुरब्बा-युक्त प्रस्तुति के लिए।
और ये जो लेखिका महोदयाएं हैं, जिन्हें साहित्य में हर अत्याचार एक "पैट्रिआर्कल वॉयलेंस" लगता है, उनके लिए कश्मीर की 7 साल की लड़की की चीख ‘पोलिटिकल जटिलता’ हो जाती है। राजस्थान में कुछ गुंडों ने किसी साधु की हत्या कर दी—तो ‘बोला नहीं जा सकता, सांप्रदायिक हो जाएगा’। लेकिन कहीं किसी और वर्ग का बच्चा गिर जाए, तो पूरा Twitter Brigade एक सुर में नारा लगाएगा—"India is no longer safe!"
इनकी कलम की स्याही सिर्फ तब बहती है जब इन्हें आश्वासन हो कि कोई ट्रोल नहीं करेगा, कोई ‘वोट बैंक’ नहीं नाराज़ होगा, और अगर हुआ भी तो "सेलेक्टिव अम्नेसिया" लागू किया जा सकता है।
इन लेखकों की सुविधाजनक चुप्पी अब "विचारधारा" बन गई है।
वे कहेंगे, “कला को राजनीति से अलग रखो।” पर फिर यही लोग अपने उपन्यास में पात्र को ऐसे गढ़ते हैं कि वह हर बार एक ही वर्ग का ‘उत्पीड़ित’ होता है, और दूसरा वर्ग ‘अत्याचारी’। किताबें बिकती हैं, पुरस्कार मिलते हैं, और पाठक सोचता है—"ये है सच्चा साहित्य।"
वामपंथी इतिहासकारों ने तो इस देश के बच्चों को वह इतिहास पढ़ाया, जिसमें राम मिथक थे, और राणा प्रताप ने 'अनावश्यक युद्ध' किया था। पर अब वही बच्चे पूछ रहे हैं—"अगर सब मिथक था, तो हमारे पूर्वज विस्थापित क्यों हुए? क्यों उनकी स्मृतियाँ राख बन गईं, और क्यों इतिहास की किताबों में उनके आँसू छपे ही नहीं?"
सच तो यह है कि ‘सच’ इन लेखकों के लिए कभी मायने ही नहीं रखता था। उनके लिए मायने रखता था—प्रकाशक कौन है? पुरस्कार कब आ रहा है? और सत्ता से समीकरण कैसे हैं?
कभी लगता है कि इनकी कलमें, पुरस्कारों से चलती हैं, पीड़ा से नहीं।
अब समय आ गया है कि हम इस 'बौद्धिक पाखंड' पर सवाल उठाएँ। हम उन चुप्पियों को पहचानें जो सबसे बड़ा शोर हैं। और हम उन लेखकों की ‘संवेदनशीलता’ पर प्रश्न करें, जो धर्म देखकर आहत होती है और जाति देखकर मौन हो जाती है।
अरे मैडम, अगर आपको हैवानियत देखकर चुप रहना है, तो कृपया अगली बार खुद को ‘बोलने वाला लेखक’ मत कहिए। कहिए—"मैं सुविधाजनक इतिहास की मौनदूत हूँ।"
©® पायल लक्ष्मी सोनी
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