"भावना का प्रतिबिंब: जैसा मन वैसा दर्शन"
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी" — तुलसीदास की इस अमूल्य चौपाई में मानवीय मन की गहराइयों को अत्यंत सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी भावनाओं, विश्वासों और दृष्टिकोण के अनुरूप ही ईश्वर या किसी सत्य को अनुभव करता है। भगवान उसी रूप में दिखाई देते हैं, जैसी हमारे अंत:करण की भावना होती है। यह न केवल एक धार्मिक अनुभव की बात है, बल्कि आधुनिक मनोविज्ञान भी इसी सिद्धांत पर आधारित कई विचार प्रस्तुत करता है, जो हमारे अनुभवों, धारणाओं और आत्म-प्रतिकृति (self-image) को प्रभावित करते हैं।
मानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को समझने के लिए पहले यह जानना ज़रूरी है कि हम अपनी अनुभूतियों को किस आधार पर बनाते हैं। किसी दृश्य, ध्वनि, व्यक्ति या विचार को देखकर हमारे भीतर जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, वह केवल उस वस्तु की वास्तविकता नहीं, बल्कि हमारी मानसिक स्थिति, पूर्वाग्रह, अनुभव और मनोदशा पर निर्भर करती है। यही कारण है कि एक ही परिस्थिति दो अलग-अलग व्यक्तियों को भिन्न अनुभव देती है।
मनोविज्ञान में इसे "Perceptual Set Theory" कहा जाता है। यह सिद्धांत कहता है कि हमारी पूर्व धारणाएँ, अपेक्षाएँ और भावनात्मक स्थितियाँ किसी भी वस्तु या घटना के प्रति हमारी धारणा को निर्धारित करती हैं। उदाहरण स्वरूप, यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में स्नेह और विश्वास से परिपूर्ण रहा है, तो वह ईश्वर को करुणामय और स्नेहमयी अनुभूति के रूप में देखेगा। वहीं, एक दुखों और संघर्षों से जूझता हुआ व्यक्ति शायद ईश्वर को न्यायप्रिय या कठोर स्वरूप में देखेगा।
एक सरल कहानी इस चौपाई के भाव को स्पष्ट करती है।
प्राचीन काल में एक गांव में तीन साधक एक ही शिवमंदिर में साधना करते थे। तीनों ईश्वर के दर्शन की लालसा में तपस्या में लीन रहते। एक दिन उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए। पहले साधक ने भगवान को अग्निरूपी, क्रोधित और रौद्र रूप में देखा, उसने डरकर आंखें बंद कर लीं। दूसरे साधक को वे शांति और धैर्य के रूप में दिखे, उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। तीसरे ने उन्हें बाल रूप में देखा और वह हँस पड़ा, उसने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। जब तीनों ने आपस में अनुभव साझा किए, तो वे चकित रह गए कि एक ही क्षण में तीनों को भिन्न-भिन्न रूप कैसे दिखे।
इस पर एक संत ने समझाया, "जाकी रही भावना जैसी..."। पहले साधक का मन क्रोध, द्वेष और भय से भरा था, उसे भगवान का रौद्र रूप दिखा। दूसरे का मन शांति और भक्ति से भरा था, उसे शांतरूप में दर्शन हुए। तीसरे का मन निष्कलंक, सरल और प्रेमपूर्ण था, उसने भगवान को बालस्वरूप में देखा।
मनोवैज्ञानिक रूप से यह कहानी एक गहरे सत्य की ओर इशारा करती है। हमारे मस्तिष्क की "Cognitive Appraisal" प्रणाली यही काम करती है — हम घटनाओं को तर्क और भावना के सम्मिश्रण से आंकते हैं। हमारी भावना, अनुभव और मानसिक स्थिति यह तय करती है कि किसी घटना या व्यक्ति को हम सकारात्मक रूप में लेंगे या नकारात्मक।
इस पर प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल रोजर्स का "Phenomenal Field" सिद्धांत भी विचारणीय है। रोजर्स का मानना था कि हर व्यक्ति की अपनी एक 'अनुभवात्मक दुनिया' होती है, जो उसकी सोच, भावना और दृष्टिकोण से निर्मित होती है। इसलिए, हम जो अनुभव करते हैं, वह वस्तु की शुद्ध सच्चाई नहीं, बल्कि हमारी अनुभूति की परछाई होती है। इस प्रकार ईश्वर के रूप भी हमारी अनुभूति की ही छाया हैं — हम ईश्वर को वैसे ही अनुभव करते हैं, जैसे हम स्वयं को और जगत को अनुभव करते हैं।
इसके अतिरिक्त, "Projection" की मनोवैज्ञानिक संकल्पना भी इसी भाव को दर्शाती है। जब व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की किसी भावना या अपेक्षा को दूसरों या ब्रह्म सत्ता पर आरोपित करता है, तो वह उस रूप में उसे देखता है। एक व्यक्ति जो स्वयं को अपराधबोध से ग्रस्त मानता है, वह ईश्वर को न्यायप्रिय, कठोर और दंड देने वाला अनुभव करता है। वहीं, जो व्यक्ति आत्मस्वीकृति और करुणा में जीता है, वह ईश्वर को भी उसी दृष्टिकोण से देखता है।
यह केवल धार्मिक अनुभवों तक सीमित नहीं है। किसी माता-पिता, शिक्षक, या नेता की छवि भी हमारी भावनाओं पर आधारित होती है। एक ही शिक्षक को कोई छात्र मार्गदर्शक के रूप में देखता है, तो दूसरा उसे दमनकारी अनुभव करता है। यह भिन्नता बाहरी नहीं, भीतरी होती है। यही भावनात्मक प्रतिबिंब हमारे संबंधों, निर्णयों और आत्म-छवि को भी प्रभावित करता है।
बाल्यकाल में मिले अनुभव, संस्कार और अभाव भी हमारे भाव-बोध को दिशा देते हैं। जो बच्चा दया, समर्थन और प्रशंसा पाता है, वह जीवन को प्रेम और विश्वास से भरपूर देखता है। वहीं, जिसने अवहेलना, तिरस्कार और भय देखा हो, वह जीवन को आशंका और संघर्ष के चश्मे से देखता है। इसी कारण व्यक्ति की धार्मिक भावना, सामाजिक व्यवहार और आत्मबोध में इतनी विविधता देखी जाती है।
इस चौपाई में छिपा भाव हमें यह भी सिखाता है कि यदि हम अपने भीतर की भावनाओं को निर्मल, सकारात्मक और करुणा से भर दें, तो हमारे बाहरी अनुभव भी सुंदर और दिव्य होंगे। यह आत्मपरिवर्तन का मार्ग है। जब मन निर्मल होता है, तो ईश्वर भी निर्मल लगते हैं। जब मन विक्षिप्त होता है, तो ईश्वर भी प्रश्नों के घेरे में आ जाते हैं।
वर्तमान युग में जब मानसिक तनाव, अवसाद और आत्मसंदेह बढ़ते जा रहे हैं, यह विचार विशेष प्रासंगिक हो उठता है। किसी आध्यात्मिक अनुभूति की आवश्यकता नहीं, केवल यह स्वीकार करना कि हम जैसे हैं, वैसा ही हम संसार और ईश्वर को देखते हैं — एक गहन आत्मचिंतन की ओर ले जाता है।
इसलिए जब हम अगली बार किसी स्थिति, व्यक्ति या यहां तक कि ईश्वर को भी किसी दृष्टिकोण से देखें, तो यह अवश्य सोचें कि क्या यह वास्तव में उनका स्वरूप है, या हमारे मन की भावनात्मक छाया? यह समझना न केवल आध्यात्मिकता का मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि आत्मबोध और मानसिक शांति का आधार भी बनता है।
"जाकी रही भावना जैसी..." केवल एक धार्मिक पंक्ति नहीं, बल्कि आत्मप्रकाश की वह दीपशिखा है जो यह दिखाती है कि हम जैसे स्वयं को अनुभव करते हैं, वैसे ही हम ब्रह्म को भी अनुभव करते हैं।
©® पायल लक्ष्मी सोनी
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