"आपातकाल और महिला योगदान: मौन प्रतिरोध से जनजागरण तक"
25 जून 1975 की वह रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सबसे काली रातों में से एक थी, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की। संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत “आंतरिक अशांति” का हवाला देकर जबरन नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, प्रेस की स्वतंत्रता को कुचल दिया गया, हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमा जेल में डाल दिया गया। उस समय भारत में संघ, जनसंघ, समाजवादी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, वामपंथी छात्र संगठनों आदि से जुड़े लाखों कार्यकर्ताओं को बंदी बनाया गया।
इस ऐतिहासिक संकट काल में जब पुरुषों के नेतृत्व पर अंकुश लग गया, तब देश की स्त्रियों ने एक अदृश्य लेकिन सशक्त भूमिका निभाई। यह भूमिका केवल ‘पीड़ित’ बनने की नहीं थी, बल्कि संगठन, प्रचार, सुरक्षा, संचार और प्रतिरोध के विविध रूपों में थी।
आपातकाल में हजारों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ, विद्यार्थी परिषद और समाजवादी विचारधारा से जुड़े कार्यकर्ता भूमिगत हो गए थे। ऐसे समय में उनके घर की महिलाएं – माताएं, बहनें, पत्नियां – न केवल परिवार का भार उठाए रहीं बल्कि सरकार की जासूसी, पूछताछ और धमकियों का सामना भी करती रहीं।
इन महिलाओं ने न केवल जेल में बंद पतियों और बेटों के लिए भोजन व वस्त्र पहुँचाने का कार्य किया, बल्कि पुलिस की निगरानी में सुरक्षित संदेश पहुँचाना, सूचनाएं लाना-ले जाना भी उनके कार्यों का हिस्सा बन गया। ये महिलाएं स्वतः संगठन की महिला शाखाओं के माध्यम से बैठकें आयोजित करतीं, प्रचार सामग्री छपवातीं, और समाज में सरकार के असंवैधानिक कृत्यों के विरुद्ध जनमत तैयार करती थीं।
राष्ट्र सेविका समिति, जनसंघ की महिला मोर्चा, विद्यार्थी परिषद की छात्रा इकाईयां तथा अन्य राष्ट्रवादी संगठनों की महिलाएं बड़ी संख्या में गुप्त बैठकों का संचालन करती रहीं। इन बैठकों में नवयुवतियों को सत्य, धर्म, राष्ट्रभक्ति, त्याग और साहस के लिए तैयार किया जाता था।
कई महिलाएं स्वयं भी जेल भेजी गईं। लखनऊ, बनारस, भोपाल, पुणे, जबलपुर, नागपुर, रायपुर, दिल्ली, अजमेर जैसे कई शहरों में बड़ी संख्या में महिलाएं अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के तहत बंद की गईं, क्योंकि उन्होंने “संसद की इज्जत बचाओ” या “लोकतंत्र की बहाली करो” जैसे पर्चे बांटे थे।
आपातकाल के समय सरकार के पक्ष में झूठा प्रचार, सरकारी आकाशवाणी और समाचार पत्रों के माध्यम से फैलाया जा रहा था। ऐसे समय में महिलाओं ने समाज को सच्ची सूचनाएं पहुँचाने का बीड़ा उठाया।
राष्ट्र सेविका समिति की कार्यकर्ता रेखा दीदी (पुणे), पद्मा टंडन (दिल्ली), शोभा जोशी (नागपुर), सुशीला जैन (भोपाल), सरोज बिष्ट (लखनऊ) इत्यादि ने मोहल्लों, मंदिरों, पाठशालाओं में नारी चेतना शिविर, धार्मिक प्रवचन, संस्कृति शिक्षा जैसे माध्यमों से सरकार की नीतियों के विरुद्ध चेतना जगाई।
आपातकाल के दौरान कई महिलाएं लंबे समय तक जेलों में रहीं। वहाँ उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन, भजन, पाठ, तथा विचार गोष्ठियों का आयोजन किया। आपातकाल पर बहुत कुछ जेपी द्वारा तैयार की गई ‘जेल डायरी’ आज भी इतिहास का अमूल्य दस्तावेज हैं।
उस समय जब सेंसरशिप के कारण अखबारों में सत्य छपना बंद हो गया था, तब महिलाओं ने हस्तलिखित समाचार पत्रों का निर्माण किया। दिल्ली, बनारस और पुणे में अनेक शिक्षित युवतियों ने मिलकर गुप्त पत्रक प्रकाशित किए , इन पत्रकों के माध्यम से लोकनायक जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, तथा दीनदयाल उपाध्याय के विचार जनता तक पहुँचाए जाते थे।
आपातकाल ने महिलाओं में यह आत्मचिंतन उत्पन्न किया कि लोकतंत्र केवल मत डालने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह एक सतत सांस्कृतिक जागरण है। इस विचार से प्रेरित होकर कई महिला कार्यकर्ताओं ने शिक्षा, सेवा, स्वावलंबन के कार्यों को अपना जीवन ध्येय बना लिया।
आपातकाल के पश्चात 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आई, तब अनेक महिला कार्यकर्ताओं ने स्कूल, छात्रावास, सेवा केंद्र, आत्मरक्षा प्रशिक्षण के कार्य प्रारंभ किए, जिससे समाज में सशक्त नारी चेतना का विकास हुआ।
सुश्री लीलावती सिंह (लखनऊ) को आपातकाल के दौरान पर्चे बाँटने के आरोप में 6 महीने की जेल हुई। वे जेल में बालिकाओं को गीत, योग और देशभक्ति की शिक्षा देती रहीं।
प्रो.सावित्री मेनन (केरल) ने अपनी छात्राओं को प्रेरित किया कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए आंदोलन करें। कई छात्राओं ने इसके लिए निलंबन भी झेला।
श्रीमती शांता देवी, जिनका घर लखीमपुर में संघ की गुप्त बैठकों के लिए प्रयोग होता था। उन्होंने अपने परिवार को खतरे में डालकर देशभक्त कार्यकर्ताओं को शरण दी।
आपातकाल के दौर की नारी शक्ति हमें यह सिखाती है कि यदि स्त्री जाग जाए, तो देश जागता है। लोकतंत्र की रक्षा केवल कानूनों से नहीं, बल्कि समाज की नैतिक चेतना से होती है, जिसे महिलाओं ने संजोया।
आज जब हम 2025 में 50 वर्षों बाद आपातकाल की स्मृति पर विचार करते हैं, तो यह समझना आवश्यक है कि उस समय स्त्रियों ने न केवल लोकतंत्र को जीवित रखा, बल्कि भारतीय संस्कृति, धर्म, और परिवार की गरिमा को भी बचाए रखा। उनकी भूमिकाएँ अदृश्य थीं, लेकिन उनका प्रभाव अमिट है।
©®पायल लक्ष्मी सोनी
लेखिका,समीक्षक
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