झूठे फेमिनिज़्म से सच्चे नारीवाद तक
समाज में आज जिस शब्द ने सबसे अधिक भ्रम पैदा किया है, वह है फेमिनिज़्म। स्त्रियों के अधिकार, उनके सम्मान और उनके आत्मनिर्भर जीवन की चर्चा होते ही कई बार यह आंदोलन अपने वास्तविक उद्देश्य से भटकता हुआ दिखाई देता है। कुछ लोग इसे स्त्री और पुरुष के बीच संघर्ष या प्रतिस्पर्धा का हथियार बना देते हैं, जबकि इसकी मूल भावना स्त्री को उसके स्वाभाविक अधिकार दिलाने और समाज में समान स्थान प्रदान करने की थी। दुर्भाग्य से आज “झूठा फेमिनिज़्म” उसी महान विचारधारा पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
झूठा फेमिनिज़्म वह है जिसमें स्त्री को स्वतंत्रता के नाम पर उसके कर्तव्यों से विमुख किया जाने लगता है। जहाँ परिवार और रिश्तों को बोझ समझा जाने लगे, जहाँ त्याग और प्रेम को कमजोरी माना जाए, और जहाँ स्त्री को केवल पुरुष से बराबरी करने के लिए उकसाया जाए, वहीं पर यह आंदोलन अपने रास्ते से भटक जाता है। यह झूठा फेमिनिज़्म स्त्री को यह समझाने की कोशिश करता है कि यदि वह अपने पति के लिए जल्दी उठकर चाय बना रही है तो वह “ग़ुलाम” है, लेकिन यदि वही स्त्री दफ़्तर जाने के लिए अलार्म लगाकर जल्दी उठती है तो वह “आधुनिक और स्वतंत्र” कहलाती है। इस प्रकार का सोच स्त्री के आत्मसम्मान को मजबूत नहीं करता, बल्कि उसे उसके स्वाभाविक सौंदर्य और शक्ति से दूर कर देता है।
सच्चा फेमिनिज़्म इससे बिल्कुल अलग है। सच्चा फेमिनिज़्म यह मानता है कि स्त्री और पुरुष विरोधी ध्रुव नहीं बल्कि परस्पर पूरक हैं। जैसे सूर्य और चंद्रमा, गंगा और यमुना, धरती और आकाश - वैसे ही स्त्री और पुरुष मिलकर जीवन की संपूर्णता का निर्माण करते हैं। सनातन संस्कृति ने हमेशा स्त्री को देवी के रूप में देखा है - कहीं वह सृष्टि की जननी है, कहीं विद्या की अधिष्ठात्री है, कहीं शक्ति की प्रतिमूर्ति है। हमारी संस्कृति ने कभी भी स्त्री को पुरुष से नीचा नहीं आँका। यहाँ सीता की करुणा है तो द्रौपदी का साहस भी है; यहाँ सावित्री का संकल्प है तो माँ दुर्गा का अदम्य पराक्रम भी है।
सच्चा फेमिनिज़्म वही है जो स्त्री को यह अधिकार देता है कि वह अपने जीवन के हर निर्णय में स्वतंत्र हो, चाहे वह करियर का चुनाव हो, परिवार की देखभाल हो या दोनों को संतुलित करना हो। यदि कोई स्त्री अपने पति, बच्चों या परिवार के लिए त्याग करती है तो यह उसकी कमजोरी नहीं बल्कि उसकी शक्ति है। वह परिवार का केंद्र है, और उसके कारण ही समाज का संतुलन बना रहता है। आज भी भारत के लाखों घरों में सुबह की पहली किरण के साथ माँ की पुकार, बहन की मुस्कान और पत्नी की ममता जीवन को ऊर्जा देती है। यही सनातन संस्कृति का स्त्री दृष्टिकोण है, जो उसे केवल अधिकार ही नहीं देता बल्कि सम्मान और शक्ति भी प्रदान करता है।
आज के दौर में झूठे फेमिनिज़्म ने पश्चिमी सोच से प्रभावित होकर स्त्री को केवल “अधिकार माँगने वाली” बना दिया है। लेकिन सच्चा फेमिनिज़्म यह सिखाता है कि अधिकार और कर्तव्य दोनों साथ-साथ चलते हैं। यदि पुरुष कमाकर लाता है तो स्त्री उस धन को परिवार की समृद्धि में बदलती है। यदि स्त्री बाहर काम करती है तो पुरुष भी उसके संघर्ष में सहभागी बनता है। यह आपसी सहयोग ही जीवन की सफलता का सूत्र है।
सनातन संस्कृति का सच्चा नारीवाद त्याग, सहयोग, मर्यादा और शक्ति का प्रतीक है। यह बताता है कि स्त्री यदि चाहे तो घर भी सँभाल सकती है और देश का नेतृत्व भी कर सकती है। गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, अनसूया जैसी ऋषिकाएँ वे उदाहरण हैं जिन्होंने वेदों में अपनी विद्वता से पुरुषों को भी उत्तर दिए। वहीं रानी लक्ष्मीबाई और अहिल्याबाई होलकर जैसी वीरांगनाएँ बताती हैं कि स्त्री युद्धभूमि में भी किसी से पीछे नहीं।
झूठा फेमिनिज़्म स्त्री को केवल “पुरुष विरोध” की ओर धकेलता है, जबकि सच्चा फेमिनिज़्म उसे “पुरुष सहयोग” के साथ समान ऊँचाई देता है। यह समझना ज़रूरी है कि समानता का अर्थ एक-दूसरे से लड़ना नहीं, बल्कि एक-दूसरे का पूरक बनना है। जिस प्रकार दो पहिए मिलकर गाड़ी को आगे बढ़ाते हैं, उसी प्रकार स्त्री और पुरुष मिलकर ही समाज को आगे बढ़ा सकते हैं।
यदि हम सनातन संस्कृति से सीख लें तो पाएँगे कि यहाँ स्त्री को शक्ति का रूप मानकर पूजा गया है। नवरात्र में माँ दुर्गा की आराधना हो या दीपावली पर माँ लक्ष्मी का स्वागत - यह इस बात का प्रतीक है कि स्त्री जीवन में ऊर्जा और समृद्धि का स्रोत है। जो संस्कृति स्त्री को देवी मानती हो, वहाँ उसके अधिकारों पर प्रश्नचिह्न नहीं उठाया जा सकता।
समाज को आज यह पहचानने की आवश्यकता है कि स्त्री के लिए सबसे बड़ी स्वतंत्रता यह है कि वह अपनी भूमिका स्वयं चुन सके। यदि वह चाहे तो करियर बनाए, चाहे तो गृहस्थी सँभाले, चाहे तो दोनों में संतुलन रखे। यही सच्चा फेमिनिज़्म है। झूठे नारे और पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित होकर यदि हम स्त्री को केवल अधिकारों की लड़ाई में उलझा देंगे, तो वह अपने वास्तविक स्वरूप से दूर हो जाएगी।
सच्चा फेमिनिज़्म स्त्री को यह एहसास कराता है कि वह माँ है, बहन है, पत्नी है, और सबसे पहले एक संपूर्ण इंसान है। उसमें वह शक्ति है जो संस्कारों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित करती है। उसमें वह सामर्थ्य है जो घर को मंदिर बना देती है। उसमें वह करुणा है जो जीवन को मधुर बना देती है। और उसमें वह पराक्रम है जो अन्याय और अधर्म के विरुद्ध खड़ा हो सकता है।
इसलिए समाज को चाहिए कि झूठे फेमिनिज़्म के खोखले नारों से दूर रहकर सच्चे फेमिनिज़्म को अपनाए, जो सनातन संस्कृति से निकला है और स्त्री को देवी, विदुषी और वीरांगना - तीनों रूपों में स्वीकार करता है। यही वह मार्ग है जो स्त्री और पुरुष दोनों को समान ऊँचाई पर खड़ा करता है और समाज को संतुलित, सामर्थ्यवान और संस्कारित बनाता है।
©®पायल लक्ष्मी सोनी
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